गुरुवार, 7 जुलाई 2011

जौनसारी भाषा

बहुत कम लोगों को ज्ञान है कि उत्तराखंड में गढ़वाली और कुमाऊनी के इतर भी कई भाषाएँ हैं ,जिनमें कई जनजातीय भाषाएँ भी हैं जैसे "मार्छा" ,"रं," "बोक्सा" ,"राजी"  आदि पर आज हम बात करेंगे जौनसारी भाषा की जो कि उत्तराखंड की सबसे बड़ी जनजातीय बोली है .वैसे यह अभी भी विवाद का विषय है कि जौनसारी एक स्वतंत्र भाषा है या गढ़वाली की ही एक उपबोली  है पर जो भी हो इतना तो तय है कि इस भाषा की अपनी कुछ विशिष्ट खासियते हैं.
जौनसार का प्रसिद्द महासू देवता का मंदिर 


यह भारतीय आर्य भाषा परिवार की बोली है और गियर्सन ने इसे पस्छिमी पहाड़ी वर्ग में रखा है. जौनसारी भाषा उत्तराखंड के देहरादून जिले के जौनसार क्षेत्र और (जिसमें जौनसार ,कलसी ,लाखामंडल और चकराता आता है) और उत्तरकाशी के कुछ इलाकों में बोली जाती है .जौनसारी की भी कई उपबोलियाँ मानी गई हैं जैसे कि बावरी, कंडवाणी आदि . जौनसारी की अपनी एक विशिष्ट बोली भी है जो कि वर्तमान में अधिक लोकप्रिय नहीं रह गई है ,इसका नाम है "बागोई"  अर्थात "भाग्य की बही"  पर ज्योतिष गर्न्थों के रूप में यह लिपि सुरक्षित है .इस लिपि का उद्गम स्थल कश्मीर माना जाता है और इसमें बारह स्वर और पैंतीस व्यंजन हैं .

परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि कालांतर में एनी बोलियों के समान ही जौनसारी भाषी अधिक लोग नहीं रह गए हैं ,नई पीढ़ी में अपनी इस पुरखों की पहचान की ओर



कम आकर्षण देखा गया है .पर हम सभी को यह ध्यान रखना चाहिये कि उत्तराखंडी भाषाओँ के पुष्प गुच्छ में जौनसारी नामक  फूल की अपनी एक विशिष्ट महक रहेगी .  

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